भीड़ बनाम इंसान

भीड़ कैसी भी हो वो आकर्षित ज़रूर करती है। फ़र्ज़ करिये कि किसी सड़क से आप गुज़र रहे हों और अचानक दिखाई पड़े कि एक ओर भीड़ एकत्र है। आपके जिज्ञासा के तार तत्क्षण झंकृति हो उठेंगें,आपका जी कहेगा कि "हो सकता है कि किसी का एक्सीडेंट हुआ हो", "शायद कोई गिर गया हो"...."किसी के बीच लड़ाई झगड़ा हुआ हो" आपसे रहा नहीं जाएगा आप जाएंगे और देखेंगे भी कि कोई घायल पड़ा है। या किसी का एक्सीडेंट हुआ है फिर आप कुछ ऐसे काम करेंगे जो शायद आप तब ना करते जब वो भीड़ उस जगह मौजूद ना होती जैसे....अगर किसी का एक्सीडेंट हुआ है या कोई घायल है तो आप अन्य लोगों की ही भाँति उसकी वीडियो बनाएँगे, सोशल मिडियाज़ पर लाइव शेयर.... जैसी हरकतें करेंगे। या मान लें कि ऐसा ना भी किया हो तो कम से कम अपनी कोई फौरी सी राय भीड़ के बीच रखेंगे कि "संभालना चाहिए था" , "देख के चलना चाहिए" , "सामने वाले की गलती रही होगी", "एम्बुलेंस को कॉल कर लो" , "कोई पुलिस को बुला लो".....आदि।

पर अफ़सोस कि आपके आस पास खड़े लोग भी इसी तरह की हरकतें कर रहे होंगे। किसी से कोई ढंग का राहत कार्य ना किया गया होगा। कोई मदद की पेशकश नहीं , कुछ नहीं बस भीड़ के पीछे की भीड़ हो लेने की उनकी मानसिकता ने उनके अंदर का इंसान मार दिया। भीड़ में खड़ा एक एक शख्स एक अलग इंसान है, पर ऐसा क्यों होता है कि जब वो भीड़ में शामिल होता है तो उसके अंदर का इंसान बोध खत्म हो जाता है। क्यों सारे उपद्रव भीड़ में ही रचे जाते हैं? क्यों हमेशा दुनिया को इन्हीं भीड़ों ने नुकसान पहुंचाया है? किसी भीड़ ने कभी मन्दिर तोड़ा तो, किसी भीड़ ने मस्जिद तोड़ी। भारतवर्ष की तमाम विविधताओं की तमाम प्रशंसाओं के बावजूद इन विविधताओं का एक काला सच ये है कि ये भीड़वादी विविधताएं हैं।
उत्तरप्रदेश के चुनाव निकट हैं जातीय समीकरण साधने की पूरी पूरी कवायद है। कई जातियाँ हैं, कुछ प्रबुद्ध , कुछ वंचित, कुछ पार्टियों के प्रति प्रतिबद्ध, कुछ अवसर के लिए प्रतिबद्ध...... दूसरी ओर कुछ बेरोज़गार भीड़ है 97000 भर्तियों वाली, एक और भीड़ है.... 5 किलो राशन वाली भीड़। और बहस बस इस बात की है कि लाल टोपी वाली भीड़ जीतेगी या केसरिया झंडे वाली। भीड़ के वजूद को ज़िंदा रखने से ही सियासत ज़िंदा रह सकती है इसीलिए जिस-जिस ने भीड़ को साधा है उसने राज किया है। और जैसा कि मैंने कहा कि भीड़ महज़ भीड़ है उसमें खड़ा हर एक शख्स भी भीड़ ही है, उसने अपनी खुद की पहचान खो दी है। क्योंकि भीड़ में होने से ज़िम्मेदारी का बोध खत्म हो जाता है और जब ज़िम्मेदारी का बोध खत्म हो जाये तो किसी भी बड़े से बड़े कृत्य-कुकृत्य को बेहद आसानी से अंजाम दिया जा सकता है। जिस भीड़ ने मंदिर तोड़ा या मस्जिद जलाई उस भीड़ में खड़े किसी एक शख्स से ज़रा अकेले में पूछियेगा कि ऐसा उसने कैसे और क्यों किया? क्या वो अकेले ऐसा कर सकता है? उसका जवाब निश्चित तौर पर आपको चौंका देगा, क्योंकि उसको मालूम ही ना होगा कि वो ये सब कैसे और कब कर गया। कोई भी इंसान कभी भी कोई भी भयंकर उत्पात अकेला नहीं कर सकता, कोई भी अहंकार अकेले नहीं पाला पोसा जा सकता। वो अहंकार जब भीड़ का रूप ले ले या यूँ कहें कि कई अहंकार जब मिलकर भीड़ बनते हैं। कई ईर्ष्याएं जब भीड़ में बंधती या बांधी जाती हैं तब वे भारतीय समाज में जातिगत वर्गीकरण का पर्याय बन जाती हैं। इसके उदाहरण आप अपने आस पड़ोस में देख सकते हैं, कितनी-कितनी जातियाँ, जातियों में बंटे लोग, एक दूसरे से ईर्ष्या करते, खुद को सर्वोपरि और सर्वश्रेष्ठ बतलाने का अहँकार, तिस पर से "राजनैतिक शह" जो उन्हें उनके "स्वयं बोध" से दूर ले जाती हुई.... सिर्फ उन्हें हुक्मरानों के वोट बैंक का सेविंग एकाउंट बनाती है या फिक्स डिपॉज़िट करती है।
ऐसी संवेदनहीन राजनीति की कल्पना आखिर मनुष्य को नैतिकता का पाठ पढ़ाते किन धर्म शास्त्रों में की गई है? किस संविधान ने उन्हें ऐसा सिखाया? कौन से माँ -बाप अपने बच्चे को परवरिश में ऐसी सीख देंगे?......सुन रहे हैं!... क्या आप सच में हैं? क्या आप बाकी हैं? बाकी हैं या नहीं ये तो शोध का विषय है पर कम से कम भीड़ में भीड़ बन जाने से पहले भीड़ से अलग होकर कुछ क्षण के लिए इंसान बन जाया करें। कुछ क्षण ज़िम्मेदार बनकर यह ज़रूर सोंचे कि भीड़ में अक्सर जो आप होते हैं..... क्या वो एकांत में आप हैं? अगर आप एकांत में भी वही हैं तो आप अपने वजूद से कोसों दूर हो चुके हैं। आप उस मृत शरीर की भाँति हैं जो कोमा में जा चुका है और परिजन ये आस लगाए बैठे हैं कि वो कभी तो जाग उठेगा। ....क्या सच ? वो जागेगा?...शायद अब बहुत देर हो चुकी है.......

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